शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

भारतीय कला चेतना के सूत्र -डाँ.भारतेन्दु मिश्र

कलाएं विविध रूपों वाली हैं, अनेक मनोदशाओं को प्रभावित करने वाली हैं |कुछ कलारूप देश काल के प्रभाव से आगे निकल जाते हैं तो कुछ किसी समय विशेष में ही कवलित हो जाते हैं | व्यक्ति ,काल और परिस्थितियाँ कला को हमेशा प्रभावित करती हैं | कला की विकास यात्रा को चीन्हने के लिए हमें व्यक्ति सापेक्षता, काल सापेक्षता और स्थिति सापेक्षता का आकलन अवश्य करना होता है | सौन्दर्य का सीधा संबंध संतुलन से है |माध्यम कोई भी हो कैनवस हो ,पत्थर हो,काठ हो या मिट्टी हो अथवा रंगमंच |संगीत के सुर हों या तूलिका के रंग ,बारीक नक्काशियां हों या चटख धूमिल रेखाएं संवेदना के शब्द हों या देह भाषा के मूक संवाद इन सभी माध्यमों से सौन्दर्य की सृष्टि तभी हो पाती है जब इनमें संतुलन होता है |यही दृष्टि मानवीय आकृतियों में भी देखी परखी जाती है | संतुलन सचेतन कला धर्म है जो कलाकार के अवचेतन में स्थित होता है और उसकी इन्द्रियों से प्रकट होता है |रचना का क्षण थिर होकर व्यवस्थित होने का होता है प्रकारांतर से वही समाधि का क्षण होता है |कलाकार ऐसे ही किसी थिर क्षण में अपनी संवेदनाओं की अनुगूंज से नवोन्मेषशाली कला रूप का सृजन करता है | समाधि की अवस्था में अनजानी प्रेरणा से संगीत, कविता ,नाटक,चित्र,मूर्ति,वास्तु आदि के रूप में जो प्रतिफलित होता है वह कलाव्यापार है | वह ललित रूप ही ललित कला स्वरूप होता है | सभी कला रूप रम्य ,नन्दतिक,सुन्दर, रमणीय,ललित और आह्लादकारी माने गए हैं | इन कलारूपों के उपभोग , दर्शन, श्रवण रूप ही विविध प्रकार के सामाजिक प्रेक्षक,श्रोता,भावक सहृदय के आनंद का कारण बनते हैं | जैसा कि कालिदास कहते हैं - ‘भिन्न रुचि: लोको’ अर्थात लोक जीवन की रुचियाँ वैविध्य से भरी हैं | ये सामाजिक सहृदय भी विविध रुचियों वाले हैं |तात्पर्य यह कि किसी को कविता में रूचि है तो किसी को संगीत या नाटक अथवा वास्तु कला में | अर्थात भारत में कला अनंत स्वरूप वाली रही है | भरतमुनि के नाट्यशास्त्र मे भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की सैद्धान्तिकी के मूल तत्व अपने मौलिक रूप मे विद्यमान हैं। व्यवस्थित रूप से इस ग्रन्थ को हम भारतीय सौन्दर्य चेतना का आकर ग्रन्थ कह सकते हैं |असल मे भारतीय सौन्दर्य परम्परा मनुष्यता के जन्म और सभ्यता के सूर्योदय का ही पर्याय है| वैदिक सभ्यता के साथ ही कला चेतना भी स्वतंत्र रूप में हमारी सभ्यता के आविर्भाव के साथ ही विकसित हुई। सरमा पणि, यम यमी संवाद,सामवेद की संगीत परंपरा,त्रिपुरदाह, नारद और सरस्वती की वीणा, ये सब प्रतीक भारतीय कला चेतना की प्राचीनता के द्योतक हैं | ‘पाराशर्यशिलालिभ्यामभिक्षुनटॅसूत्रयो: [अष्टाध्यायी]’ के सन्दर्भ मे डाँ.वासुदेव शरण अग्रवाल कहते है-‘आर्ष वांगमय की यह सारी सामग्री इतना ही संकेत दे पाती है कि इस देश मे भरतों की एक परम्परा थी।सम्भवत: इन भरतों या भरत जनों मे से किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या पूरे वंश का संबन्ध नटसूत्रों से रहा हो।’[पाणिनि कालीन भारतवर्ष-पृ.315] अर्थात भरतमुनि का सौन्दर्य चिंतन भी आर्ष परम्परा जितना ही प्राचीन रहा होगा। भरतके सहस्रों शिष्य प्रशिष्य भरत कहलाये जो इन अनेक कला रूपों के विविध अंगों से सदियों तक जुड़े रहे होंगे | यही कारण है कि भरत की सौन्दर्य दृष्टि किसी एक व्यक्ति ,वंश,जाति या किसी सामंत अथवा राजा के नाम से प्रचलित या विकसित नही हुई। शिव और पार्वती अनेक कलाओं के जनक हैं | तांडव,लास्य,संगीत,अभिनय, काव्य, भाषा व्याकरण आदि के जनक तो अर्धनारीश्वर ही हैं | कालिदास कहते हैं-- वागार्थाविव संपृक्तौ वागार्थ प्रतिपत्तये जगत: पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ | अर्थात शिव और पार्वती वाणी और अर्थ की तरह एक ही शब्द में समाये हैं | शब्द के अक्षर तो देखे जा सकते हैं पढ़े जा सकते हैं किन्तु अर्थ की छवियाँ केवल समझी जा सकती हैं केवल अनुभवगम्य हैं | ऐसे अर्धनारीश्वर रूप शिव और पार्वती संसार के माता पिता हैं जिन्हें मैं वाणी और अर्थ की प्रतीति हेतु प्रणाम करता हूँ | यह एक ही श्लोक में काव्य, चित्र और जीवन के संतुलन की भाषा का व्याकरण कालिदास प्रस्तुत करते हैं | कलात्मक सौन्दर्य का यह अद्भुत दर्शन कालिदास ही प्रस्तुत कर सकते थे | शिव और पार्वती लोक के देवता हैं जिसमें सुर, असुर, नाग, किन्नर, यक्ष,दैत्य ,स्त्री, पुरुष,सवर्ण अवर्ण आदि सभी रहते हैं | इसलिए भरत लोक में जाते हैं ,लोक से प्रमाण लेते हैं उसे ही नाटक के लिए चुनते हैं और उसी की व्याख्या भी करते हैं | हमारी कलाओं का स्वरूप लोकोन्मुख है | हमारे समाज में वेद और लोक दो परंपराएं रही हैं | वैदिक परंपराएं कुलीन वर्ग के लिए प्रचलित थीं जबकि लौकिक परंपराएं अकुलीन लोगों के समाज का हिस्सा बनी रहीं | परवर्ती समाज इन्ही खांचों में विभक्त होता गया |हमारी दार्शनिक परंपराएं भी इसी तरह विकसित हुईं कुछ दर्शन आस्तिक हुए तो कुछ नास्तिक परंपरा वाले भी चलते रहे | माना जाता है लोकायत दर्शन जिसे चार्वाक दर्शन भी कहा जाता है वैदिक सभ्यता से भी पहले का है | कलाओं पर भी इन धार्मिक दार्शनिक परंपराओं का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है | हमारे समाज में पहले शिवालय बने बाद में वैष्णव ,जैन,बौद्ध,शैव और शाक्त मत के प्रभाव में मंदिरों का निर्माण किया गया |शाक्त परंपरा और शैव परंपरा में मंदिर भी बने, इन सभी वास्तु स्थापत्य और शिल्प रूपों में वैचारिक द्वंद्व भी हुए आगे चलकर युद्ध भी दिखाई देते हैं किन्तु जैन और बौद्ध दर्शन के प्रभाव से वास्तु और स्थापत्य को नए आयाम भी मिले |मठ मंदिर और स्तूपों के ये कला रूप इनके अनुयायी राजाओं सामंतों ने बनवाये |लगभग नवीं सदी में शंकराचार्य ने आध्यात्मिक दिग्विजय करके चार पीठ बनाए और वेदांत दर्शन की स्थापना की |हालांकि मूर्तिपूजा और पाखण्ड आदि के वे प्रबल विरोधी थे | इन्ही दिनों आचार्य अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र की टीका लिखी ,तंत्र दर्शन और प्रत्यभिज्ञा दर्शन की भी नीव रखी |आचार्य अभिनवगुप्त ही स्वतन्त्र कलाशास्त्र के उन्नायक और कश्मीर शैव दर्शन के संस्थापक माने गए | रस सिद्धांत की सर्वाधिक मनोवैज्ञानिक व्याख्या अभिनवगुप्त ही करते हैं | उनका विश्लेषित ‘साधारणीकरण’ काव्य ,संगीत नाटक,वास्तु चित्र आदि ललित कलाओं को समझने का पैमाना बनता गया | वहीं लोकधर्मी मत्स्येन्द्रनाथ ,भर्तृहरि , गोरखनाथ जैसे सिद्ध संतों ने अनेक मठों की स्थापना की इन सबके मूल में शिव और शक्ति की साधना ही प्रमुख तत्व है | जिनकी अपनी तन्त्रमूलक सौन्दर्य चेतना है लेकिन इन्हें हम स्वतन्त्र कला चेतना के रूप में नहीं देख सकते | श्रेष्ठ कला रूप वह होता है जो अनंत से हमें जोड़ सके हमारे अवचेतन को किसी धर्म दर्शन तक सीमित न करे | जिसका मूर्तन न किया जा सके बल्कि जो अमूर्त हो | अग्निपुराण में ब्रम्ह को ‘रसो वै स:’ कहा गया| भरत ने उसी रस को कविता और नाटक का मूल कहा | जिसे कबीर के शब्दों में कहें तो - ‘लोचन अनत उघाडिया अनत दिखावन हार’ .. यह वही ब्रम्ह है जिसे कश्मीर शैव दार्शनिक स्वतन्त्र कलाशास्त्र के अध्येता प्रो.कृष्ण चन्द्र पाण्डेय जी ने विविध कालाओं की चरम परिणति के रूप में - रस ब्रम्ह, नाद ब्रम्ह और वास्तु ब्रम्ह के रूप में चिन्हित किया था | यह ब्रम्ह रूप रस परमानंद का ही स्वरूप है | वह परमानंद कविता और नाटक में रस ब्रम्ह के रूप में प्रकट होता है, संगीत और नृत्य में नाद ब्रम्ह के रूप में प्रकट होता है जबकि वास्तु, स्थापत्य आदि कलाओं में वास्तु ब्रम्ह के रूप में प्रकट होता है | अतीत में कलाकारों ने राज्याश्रित और स्वतन्त्र होकर दोनों तरह से कलाओं की साधना की है | राज्याश्रित कलाओं का सीमांकन मत विशेष के आधार पर दरबारी सामंतों ने किया किन्तु स्वतन्त्र कलाकारों ने लोक भावना और जन जीवन की आकाक्षा को ध्यान में रखकर स्वतन्त्र अभिव्यक्ति से कलाओं पर काम किया है | हालांकि राज्याश्रय न मिलने के कारण लोक जीवन के कवि,शिल्पी,काष्ठकार,वास्तुकार ,रंगकर्मी ,संगीतकार काल के गाल में समाते चले गए और उनके होने न होने के प्रमाण भी अब खोज पाना असंभव है | दुनिया में सब कहीं राज्याश्रित कलाकारों का ही इतिहास मिलता है इसका अर्थ यह नही कि जिन्हें राज्याश्रय नहीं मिला या जो राज्याश्रय के विरुद्ध थे उनकी कलावादी दृष्टि ही नही रही होगी | भारत की प्राचीनतम मूर्तिकला का इतिहास सिन्धु घाटी के उत्खनन से ज्ञात होता है। उसमें प्राप्त विविध मूर्तियाँ भारतीय संस्कृति को दिग्दर्शित करती हैं। मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के अतिरिक्त चन्हदडो, राजगीर ,महाबलीपुरम, अम्बाला, करांची, केला, (बलूचिस्तान) आदि सैकड़ों स्थानों तक इस सिन्धु सभ्यता का प्रसार रहा है।विद्वानों ने इसकी प्रचीनता लगभग 4000 ई.पू.से लेकर 2500 ई.पू.तक निर्धारित की है।ये मूर्तियाँ वैष्णव,जैन और बौद्ध धर्म से भी जुडी हुई हैं | तात्पर्य यह कि हमारी आस्तिक और नास्तिक दोनों परंपराओं का विवरण इन मूर्तियों और स्थापत्य से मिलता है |यही सौन्दर्य चेतना जैन बौद्ध मतों के साथ विश्व के अनेक देशों में प्रसारित हुई | यहाँ तक हमारे वैदिक समाज में भी मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं मिलता है | यज्ञ आदि में पञ्च तत्वों से जुड़े देवताओं की पूजा अर्चना का विधान है | वैदिक वांगमय में सूर्य,चंद्रमा,मरुत,जल,अग्नि,इंद्र,पृथ्वी आदि को देवता कहा गया है | भास ने प्रतिमा नाटक में प्रतिमा मंदिर का उल्लेख किया है जिसमें रघुवंशियों के दिवंगत राजाओं की प्रतिमाएं बनी हुई थीं |यह मंदिर देवताओं के मंदिर के रूप में न होकर एक तरह का म्यूजियम रहा होगा | भित्ति चित्र और साहित्य में कलाओं का विकास और उनके रूपाकारों में बदलाव साफ तौर से देखे समझे जा सकते हैं |वैष्णवधर्म से जुडी -रामकथा, कृष्णकथा, महावीर जैन कथाएं , बौद्ध गाथाएँ, पौराणिक कथाओं के भित्ति चित्र भी समय समय पर देखने को मिलती रहीं | इसी कड़ी में ईशु की शूल चुभी प्रतिमा भी भारतीय मूर्ति और चित्र कला का अंग बनी | मुग़ल काल में हमारी धार्मिक मान्यताओं के आधार पर बनी अनेक मूर्तियों मंदिरों का भंजन किया गया और मस्जिदों का नया वास्तु और नयी संस्कृति सामने आयी | ताजमहल और लालकिला जैसे भव्य गौरवशाली भवन इसी काल में बने | तानसेन और बैजूबावरा जैसे संगीतकार इसी समय में उभरे | अमीर खुसरो ,कबीर, जायसी, सूर, तुलसीदास, रैदास, मीराबाई , अब्दुर्रहीम खानखाना जैसे अनेक बड़े कवि भी इसी कालखंड में जनमें | इनमें से खुसरो, खानखाना के अलावा सभी लोक धर्मी कवि थे | सूफी संगीत इसी कालावधि में नए रंग ढंग से स्थापित हुआ | साकार और निराकार ज्ञान मार्गी और प्रेममार्गी धाराओं का साहित्य और संगीत, लगातार गूंजता रहा | लोक नृत्यों ,लीलाओं ,नाटकों आदि का प्रदर्शन भी चलता रहा| सूक्ष्म तैल चित्रकारी और भवनों के पत्थरों पर मनोरम चित्र टंकित किये जाते रहे इन भवनों में अनेक रंग के पत्थर हीरे तथा धातुओं का प्रयोग किया जाने लगा था | इन सभी कालखंडों में कलाओं के रूपाकार बदलते रहे, शासकों ने उन्हें अपनी तरह से सीमित भी किया और नयी चेतना से विस्तार भी दिया , किन्तु लोककला की आत्मा सदैव एकात्म रही | अंगरेजी राज में कलाओं का और विकास हुआ | नया नाटक,नयीकाव्य परंपरा,नयी संगीत धारा,आर्क्रेस्ट्रा, नया वास्तु स्थापत्य आदि भी भारतीय कला चेतना से जुड़ते गए | पाश्चात्य जगत के कलारूपों से हमारी चेतना टकराई तो उनकी संवेदना और तकनीकि को हमने भी जाना समझा | ये कलाओं और संस्कृतियों की आवाजाही दोनों तरफ से हुई | तात्पर्य यह कि जब हम भारतीय कला चेतना की हजारों वर्षों की परंपरा को चिन्हित करेंगे तो कलाओं के इन सभी पडावों पर दृष्टि अवश्य रखनी होगी | देश की स्वतंत्रता के बाद तो इन स्वतन्त्र कलारूपों में फिर अनेक परिवर्तन हुए| यह समय इन कला रूपों के पुनरीक्षण का था,कलाकारों को सम्मानित करने का था हमने स्वतन्त्र कलाओं को चीन्हने में देर की | उनकी स्वतन्त्र इयत्ता को ठीक से नहीं पहचाना | कलाओं की विकास यात्रा को निर्णायक तौर पर किसी एक मत के आधार पर विश्लेषित करना अनुचित और असंगत होगा | मेरी दृष्टि में चित्रकला हो ,संगीत,वास्तु अथवा साहित्य अमूर्तन किसी भी कला में नवोन्मेषशाली सृजन की अनिवार्य शर्त है जबकि मूर्तन कला को सीमित करने और किसी मत विशेष के सांचे,खांचे में डालकर सत्ता के प्रति उपयोगी बनाने का जतन होता है | अनेक विद्वानों ने इसी आधार पर शास्त्रीय और उपयोगी कलाओं को अलग अलग किया है |अब तो पूजीवादी बाजार ने स्वतन्त्र कलाओं की प्रगति को लगभग सीमित कर दिया है |कुछ कलारूप तो नष्ट भी हो चुके हैं | अंतत: कहना चाहता हूँ कि यह बहुत बड़ा विषय है तथापि मेरी दृष्टि में यही कुछ भारतीय कला चेतना के बिखरे हुए सूत्र हैं | संपर्क: सी-45/वाई-4 ,दिलशाद गार्डन , दिल्ली- 110095 फोन- 9868031384

शनिवार, 28 अगस्त 2021

 चमेली जान :पहली किन्नर कथा

भारतेंदु मिश्र


हिन्दी साहित्य में यह काल खंड आलोचना को प्रश्नाकित करने का है | हमारे बड़े  आलोचकों ने पिछले कई दशकों के साहित्य को या तो अनालोचित ही छोड़ दिया या फिर एक ख़ास विचार धारा की पैरवी करते हुए साहित्य को एकमार्गी बनाने में कोई कोर कसर बाकी नही रखी | मार्क्सवादी  आलोचना  की यह सीमा भी रही कि उसमें कुछ ख़ास पैमाने बनाए गए |कविता  हो या कहानी अथवा गद्य की अनेक विधाएं सभी समकालीन रचनाकारों की  इस प्रकार की चिंता समय समय पर उठती रहती है |इसीका परिणाम हुआ कि अब आलोचना का स्थान विमर्श ने ले लिया है | राजेन्द्र यादव ने हंस के संपादकीयों में प्राध्यापकीय आलोचना को इसी लिए नकार दिया था |साहित्य में उभरे कुछ विमर्श बहुत काम के हैं | उदाहरण के लिए दलित विमर्श,स्त्री विमर्श,लोकभाषाओं,जनभाषाओं  के साहित्य का विमर्श , किन्नर विमर्श  ,विकलांगता विमर्श आदि | विमर्श में आलोचना नहीं होती बल्कि मुख्यधारा के साहित्य में ऐसे साहित्य को जोड़ने की वकालत होती है | रचनाकार के जीवन संघर्ष और  सामाजिक परिवेश को ध्यान  में रखते हुए  उसकी रचनाशीलता को समझने और समझाने के लिए यह विमर्श  आवश्यक भी है | इस विमर्श  ने हमें अनेक उल्लेखनीय साहित्यकार दिए हैं | समकालीन सृजन को व्यापक मनुष्यता के  पक्ष से विश्लेषित करने की दृष्टि से यह  सचमुच महत्त्व का कार्य  है | इन विमर्शों की दृष्टि से जो महत्त्व के  कार्य किये गए हैं उन्हें साहित्य की मुख्य चेतना में शामिल किया जाना आवश्यक भी है  |

पिछले कुछ दशकों में किन्नर विमर्श की बहुत चर्चा हुई है |ट्रांसजेंडर को लेकर अनेक कवितायें कहानियां उपन्यास और जीवनीपरक पुस्तकें अब हमारे सामने आ चुकी हैं |

 यहाँ मैं बात करना चाहता हूँ हिन्दी में लिखी पहली किन्नर कथा की जो कि अमृतलाल नागर जी ने अपने साप्ताहिक अखबार चकल्लस (वर्ष -1 अंक -19  जून 1939 में )प्रकाशित की थी |इसके लेखक आधुनिक अवधी के प्रगतिशील कवि और श्रेष्ठ कथाकार बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस जी थे |उनकी इस कहानी का नाम चमेली जान है | आकार और शिल्प की दृष्टि से यह कहानी संस्मरणात्मक  रेखाचित्र जैसी दिखती है |इसीलिए नागर जी ने इसे स्केच कहा था | रामविलास शर्मा जी ने जब पढ़ीस ग्रंथावली का संपादन किया तो उसमें भी इसे स्केच ही कहा | मेरी दृष्टि में यह हिन्दी की पहली पूर्ण किन्नर कथा कही जा सकती है | विधा की दृष्टि से इसे स्केच , संस्मरण, रेखाचित्र  या कहानी  कुछ भी कहा जा सकता है |कथा नायक नंदराम पढ़ीस  जी के गाँव के मित्र थे | बचपन में पढ़ीस  जी उनके साथ खेलते मिलते बतियाते थे |नंदराम अपने माता पिता के अकेले पुत्र थे | उनके पिता  जी  गाँव के मुखिया थे |लेकिन जैसे जैसे नंदराम बड़े हुए किशोरावस्था आते ही  उनमें लड़कियों जैसी शर्म संकोच के लक्ष प्रकट होने लगे |उनके हमउम्र साथी लड़के  उन्हें खेत खलिहान  में  छेड़ने  लगे थे |

हम कल्पना कर सकते हैं कि आज से लगभग एक सदी पहले का पिछड़ा ग्रामीण समाज कैसा रहा होगा ? मर्दवादी चेतना और उस पर सवर्ण कनवजिया  ब्राह्मण परिवार का एकलौता लड़का नंदराम किस मनोदशा से गुजरता होगा ? कोढ़ में खाज  यह कि उसके पिता  गाँव के मुखिया थे | उनके परिवार के  लिए उस समाज में नंदराम को हिजड़ा या नपुंसक रूप में स्वीकार करना  मानो जीवन मरण  का प्रश्न था |उस समय के उसके हमउम्र अन्य किशोरों की मानसिकता कैसी रही होगी यह भी चिंतन का विषय है | कमोबेश  आज भी हमारे तथाकथित भद्रलोक के समाज में सभ्य  समझे जाने वाले शहरी परिवारों में भी किन्नरों के प्रति  ऐसी स्वीकृति की सहमति नही बन पायी है |  नंदराम का मनोविश्लेष्ण करते हुए उनके  स्त्रियोचित आचरण को लेकर पढ़ीस  जी लिखते हैं-

नंदराम बड़े शौक़ीन थे |लेकिन उम्र बढ़ने के साथ उनका झुकाव अजब तरह की बातों की ओर होने लगा था |मैनचेस्टर की मखमली पाट वाली मलमली चुनी धोती पहन आधी सर पर डाल  लेते |किशोर से अधिक उन्हें किशोरी की तरह चलना  पसंद आने लगा था |यद्यपि बाप की आँख बचाकर ही शुरू शुरू में ऐसा हो पाता  था  फिर भी वह अपनी सुरमा लगी आँखों ,पान की लाली और लम्बी बाल की लट का गाल चूम लेना, एक छोटे आईने में ,जो हर समय उनके सलूके की जेब में रहता था ,दिन में कईबार देख लिया करते थे | ( चमेली जान, भारतीय साहित्य के निर्माता बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस  -पृष्ठ 109 )

नंदराम पढ़ीस  जी से कोई छह महीने बड़े थे |पढ़ीस जी से उनकी मित्रता थी |वो अपने दिल की तमाम बातें उनसे साझा भी करते थे | नंदराम  ब्याह नहीं करना चाहते थे | जब नंदराम का ब्याह करने वाले उन्हें देखने आये तो पढ़ीस जी ने उन लोगों को नंदराम की मनोदशा के बारे में बता दिया |यह बात नंदराम के परिवार के लोगों को बहुत बुरी लगी और  पढ़ीस जी के पिता  को बुलाकर मुखिया जी ने बहुत डांटा फटकारा | एक दिन तो नंदराम की माता  ने पढ़ीस  जी की माता को दलित जाति  की महिलाओं से खूब गालियाँ भी दिलवायीं | पढ़ीस जी पर भी परिवार के बुजुर्गों का बहुत  दबाव पड़ा |एक दिन दादी जी ने पढीस जी को समझाया- देखो लाल ! शादी में भांजी मारने से बड़ा पाप लगता है | आखिर हम भी तो घी पूत रखाए हैं| ( वही, पृष्ठ-110) पढीस जी अपने दोस्त को शादी करने से बचाना चाहते थे इसीलिए उन्होंने ब्याह कराने आये लोगों से नंदराम की सच्चाई बतायी थी  | नंदराम का कहना था- मेरा ब्याह करने से क्या फ़ायदा ? मेरे भाग्य में न जाने क्या बदा  है ?( वही,पृष्ठ-110)

गाँव की उस रूढ़िवादी सोच से लड़ना तब शायद इतना आसान नहीं था |परन्तु संवेदनशील  लेखक पढ़ीस जी ने अपने मित्र के प्रति अपने  दायित्व को निभाने की पूरी कोशिश अवश्य की | इस घटना के बाद पढ़ीस जी लखनऊ चले आये | नंदराम तालाब पर नहाती स्त्रियों को उनके कपड़े दे आते महिलाओं की धोती धो डालते |गाँव की  स्त्रियाँ भी नंदराम को अपने जैसा ही मानने लगी थीं | लेखक ने नंदराम के बहाने  किन्नर की मनोदशा का जैसा शब्द चित्र खींचा है वह उस समय के हिसाब से  अत्यंत स्वाभाविक और नवीन  लगता है | परिवार के लोगों ने आखिरकार नंदराम की शादी करा ही दी | नंदराम ने अब घर से  भागकर भीष्म कर्म करा लिया था  और लखनऊ आकर पाटानाला के पास कहीं  हीजड़ों की टोली में शामिल हो गए थे |इसके अलावा उनके सामने जीने के लिए आजादी का  कोई दूसरा  रास्ता न बचा था | पढ़ीस जी जब गाँव जाते तो नंदराम की पत्नी माने अपनी भावज से मिलकर आते | इस शादी से नंदराम और उनकी पत्नी दोनों का जीवन बर्बाद हो गया था | दोनों को समझने वाला कोई न था इसीलिए नंदराम घर से भाग गए और उनकी पत्नी अभिशप्त जीवन जीने के लिए वही पड़ी  रही | नंदराम ने अपनी पत्नी को  दूसरा विवाह कर  लेने के लिए भी कहा था लेकिन उसने स्वीकार न किया | उस जमाने में स्त्रियों को ऐसे अधिकार भी न थे | किन्नर अधिकारों की बात तो भूल ही जाइए |

कई वर्षों के बाद अचानक लखनऊ में पढ़ीस जी एकबार नंदराम को देखकर पहचान लेते हैं तो उनसे बात करते हैं | कहानी में भाषा और परिवेश का अद्भुत यथार्थवादी  सृजन लेखक ने किया है | मंगलमुखी नंदराम  ने गा बजाकर सबको दुआएं देने के लिए  अब अपनी टोली बना ली थी और अपना नाम चमेली जान रख लिया था |मानो वह  सभी जाति  धरम के बंधन से मुक्त हो गए हों | लखनऊ में अचानक पढ़ीस जी को देखकर नंदराम अपनी टोली के साथियों को विदा कर अकेले में बात करते हैं | नंदराम अपनी पत्नी को अपनी सहेली की तरह बहुत चाहते हैं | लेकिन उसकी स्थिति को सुधारने के लिए नंदराम पढ़ीस  जी से कहते हैं -  मेरी औरत से कह देना वह यहाँ मेरे पास चली आये तो आर्यसमाजियों के यहाँ मैं उसका दूसरा ब्याह करा दूंगी | ऐ हाँ,कन्यादान भी कर दूंगी |   पढ़ीस जी को यह संदेश देकर नंदराम उर्फ़ चमेली जान चली गयी | नंदराम ने अपने समाज से भागकर अपनी तरह की जिन्दगी को चुन लिया था किन्तु वह गाँव में विवश पड़ी  अपनी ब्याहता  पत्नी के जीवन और उसकी बेहतरी के  बारे में सकारात्मक सोच रखता है |एक सदी पहले के  लेखक पढ़ीस  जी के ये  विचार आज भी नए और ताजगी से भरे लगते  हैं |

यहाँ ज्ञातव्य है कि भोले भाले नंदराम को  चमेली जान बनने पर अगर किसी ने विवश किया था  तो वह उनका रूढ़िवादी पुरुष सत्ता वाला समाज ही है | पढ़ीस जी जिस संवेदनशीलता से नंदराम और चमेली जान के शब्द चित्र बनाते हैं उतनी ही तन्मयता से  नंदराम  की पत्नी के निर्विकार भाव  का शब्द चित्र प्रस्तुत करते हैं| आकार की दृष्टि से कहानी बहुत बड़ी नही है किन्तु संवाद इतने सधे पठनीय  और मर्मस्पर्शी हैं  कि सीधे हृदय में स्थान बना लेते हैं | इस कहानी का मंचन किया जाय तो बहुत खूबसूरत रंगमंच बन सकता है | मुझे लगता है कि यह कहानी ही हिन्दी की पहली किन्नर कथा है |

लामजहब शीर्षक से पढ़ीस जी का कहानी संग्रह वर्ष 1939 में पटना से प्रकाशित हुआ था | वह प्रेमचन्द युग के समर्थ कथाकार थे |  शब्दचित्र  का सृजन करने और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों  का वर्णन  करने में पढीस जी को महारत हासिल थी | कथाकार पढ़ीस जी के बारे में डॉ. रामविलास शर्मा  जी लिखते हैं-

अमृतलाल नागर ने कहा था वह तस्बीर निगारी में प्रेमचंद से आगे थे ,यह बात सही है |अमृतराय ने इनके मरने के बाद हंस में एक लेख में लिखा था -कुछ बातों में वह  प्रेमचन्द से बड़े थे यह बात भी सही है |इनके गद्य में जो कसाव है और गहरी करुणा  है यह अन्यत्र दुर्लभ है |हिन्दी का यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि उनका जीवन अकाल ही समाप्त हो गया |(-पृष्ठ -12 ,पढीस ग्रंथावली )

साहित्य अकादमी के लिए पढ़ीस जी पर विनिबंध लिखते समय  इस मार्मिक कहानी को लेकर बार बार मेरे मन में यह विचार आता रहा कि शायद इस कहानी को हिन्दी की पहली किन्नर कथा कहा जाना चाहिए | आशा है कि किन्नर विमर्श से जुड़े साहित्यकार चिंतक शोधार्थी  मेरे इस प्रस्ताव पर सहानुभूति पूर्वक विचार करेंगे |

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